चांडिल : लोहे के हुक से पीठ छिदवाकर श्रद्धालुओं ने 100 फीट की ऊंचाई पर खुद को टंगवा लिया और लोगों को रिझाया
चांडिल। चड़क पूजा के अवसर पर चांडिल प्रखंड के हिरिमिली में शनिवार को भोक्ता टांगान हुआ, जिसमें बड़ी संख्या में लोग जुटे थे। यहां भोक्ता – श्रद्धालुओं ने लोहे की हुक से अपनी पीठ की चमड़ी को छिदवाया। वहीं, उस लोहे के हुक को रस्सी से बांधकर करीब 100 फीट की ऊंचाई पर लकड़ी के बने खंभे पर खुद को टंगवाकर लिया। इस दौरान गाजे बाजे के साथ श्रद्धालु बारी बारी से स्वंय को न केवल ऊंचाई पर टंगवाया, बल्कि पूरे मौज मस्ती से झूलकर खंभे का चक्कर लगाते हुए लोगों को रिझाया।
सार्वजनिक शिव पूजा एवं चड़क पूजा समिति हिरिमिली के सचिव नीतू सिंह सरदार ने बताया कि यह पूजा और परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही हैं। पूजा के अंतिम दिन यानी की तेल हल्दी के दिन बलि चढ़ाने की प्रथा है। श्रद्धालु पूजा अर्चना के दौरान बाबा के समक्ष हाथ जोड़कर मनोकामना रखते हैं, भक्तों की मनोकामना पूर्ण होने पर वे तेल हल्दी यानी पर्व के अंतिम दिन बाबा के दरबार पर चढ़ावा चढ़ाते हैं। इस अवसर पर मांगी गई मन्नत के मुताबिक बलि चढ़ाई जाती हैं।
बता दें कि ग्रामीण क्षेत्रों में चढ़क पूजा को प्रमुख पर्व के रूप में माना जाता है। झारखंड (तत्कालीन छोटा नागपुर क्षेत्र) में इसे अलग अलग नामों से जाना जाता है। चढ़क, भोक्ता, मंडा आदि के नाम से जाने जाते हैं। झारखंड के सरायकेला – खरसावां, पूर्वी सिंहभूम, हजारीबाग, खूंटी, रामगढ़, गिरिडीह, धनबाद, बोकारो समेत पश्चिम बंगाल तथा ओडिशा के कुछ हिस्सों में इस पर्व का प्रचलन प्राचीन काल से चली आ रही हैं। कुछ क्षेत्रों में धधकते अंगारों के ऊपर नंगे पांव चलकर श्रद्धालु अपनी अग्नि परीक्षा देते हैं। कहीं पर नाक, गाल, जीभ आदि शरीर के अंगों में आर पार अंकुश डालकर हैरतअंगेज करतब दिखाए जाते हैं। यह सबकुछ परंपरा का हिस्सा है। सदियों से चली आ रही इस परंपरा में अच्छी बारिश, फसलों के उपज और सुख-समृद्धि ईश्वर से कामना किया जाता है। इस पूजा को मानने वाले श्रद्धालुओं को कठिन व्रत का पालन करना पड़ता है और सादगी व सात्विक नियमों का पालन करना होता है।
इस पूजा में भगवान शिव जी ही मुख्य आराध्य देवता होते हैं, जिनकी पूजा कई घंटे तक निर्जला उपवास में रहकर की जाती हैं। वहीं, पीठ पर लोहे की हुक छिदवाने वाले श्रद्धालुओं को भी व्रत का पालन करना पड़ता है। जब श्रद्धालु पीठ पर लगे हुक में बंधे रस्सी से ऊंचाई पर झूलते हैं तब नीचे खंभे के सामने परिवार की कोई महिला या युवती खड़ी रहती हैं। इस दौरान महिला के सिर पर पानी से भरा कांस्य का लोटा होता है। जबतक पुरूष श्रद्धालु को नीचे नहीं उतरा जाता है, तब तक महिला व्रती भी निर्जला उपवास में रहती हैं। यह पर्व मुख्यतः बंगला कैलेंडर के चैत्र संक्रांति से शुरू हो जाता है जो जैष्ठ संक्रांति तक चलती हैं। प्रायः सभी गांव में इसकी तिथि निर्धारित रहती हैं लेकिन अलग अलग तिथियों में सभी ग्रामीण इसे मानते हैं।